by Ishan Roy
जाने-माने लेखकों और प्रकाशकों ने माना 'बच्चों का खेल नहीं है, बच्चों की किताबों की मार्केटिंग
बालसाहित्य का एक वृहद संसार है जो बच्चों के लिए उपयोगी पुस्तकों के माध्यम से उनको शिक्षा, ज्ञान के साथ ही मनोरंजन देने का अत्यंत महत्वपूर्ण दायित्व निभाता है। इन पुस्तकों के समक्ष दो बहुत ही महत्वपूर्ण चुनौतियाँ होती हैं। पहली, बच्चों की कच्ची उम्र, कोमल कल्पनाओं एवं गहन जिज्ञासा के अनुरूप पाठ्य सामग्री का प्रकाशन करना तथा दूसरी, इन पुस्तकों को इनके पाठक वर्ग यानी बच्चों तक पहुँचाना। पहली चुनौती अक्सर उतनी कठिन नहीं होती। एक अच्छा बाल साहित्यकार और प्रकाशक अपने पाठक वर्ग (बच्चों) को ध्यान में रखते हुए अच्छी ज्ञानवर्धक कहानी, मोहक आवरण पृष्ठ तथा आकर्षित करता विज्ञापन तैयार करता ही है लेकिन सिर्फ़ इतना ही काफ़ी नहीं होता। असली चुनौती इसके बाद शुरू होती है।
दरअसल किताबें कितनी भी अच्छी क्यों न हों, कटु सत्य यह है कि वह स्वयं को नहीं बेच सकतीं। यहीं से काम शुरू होता है किताबों की सही मार्केटिंग का। सही दिशा में की गई मार्केटिंग ही तय करती है कि कौन सी किताब कितनी बिकेगी और खरीदी जाएगी ? सही प्रचार के साथ अपने पाठक वर्ग तक पहुँचने के लिए प्रकाशक को किताब के प्रकाशन के साथ-साथ बाज़ार की अवधारणा पर भी काम करना होता है। तब जा कर कोई पुस्तक अपने पाठक तक पहुँचती है।
इसी बात को ध्यान में रखते हुए जयपुर बुकमार्क के पहले दिन के तीसरे सत्र में पुस्तकों के लिए 'मार्केटिंग स्ट्रेटेजी' के महत्व पर 'बाल साहित्य प्रकाशन जगत' की जानी-मानी हस्तियों ने मिल कर चर्चा की। सत्र का विषय था - 'द बिग बुक बॉक्स फ़ॉर किड्स'।
सत्र में वक्ता के तौर पर अपने विचार रखते हुए फ़्रांस के प्रकाशन संस्थान 'टैलेंट हंट' प्रकाशन की संस्थापिका सुश्री लारेंस फारोन ने कुछ चित्रों के माध्यम से अपने देश में बच्चों के साहित्य के प्रचार-प्रसार का तरीक़ा दिखाते हुए बताया कि फ़्रांस में आमतौर पर लेखकों और प्रकाशकों द्वारा स्कूलों और बच्चों तक पहुँच कर उनमें रूचि जगाई जाती है। साथ ही विभिन्न पाठन / लेखन कार्यशालाओं एवं प्रतियोगिताओं के ज़रिये बच्चों की पसंद और रुझान के बारे में भी पता लगाया जाता है। विशेष रूप से फ़्रांस में किसी भी 'बुक स्टॉल' या 'बुक स्टोर' पर बच्चों की किताबों के लिए एक कोना ज़रूर होता है ताकि वो अपनी पसन्द की किताब ले सकें।
लेखिका-संपादक और अनुवादक मनीषा चौधरी ने विशेषरूप से भारत की बहुभाषीय संस्कृति को ध्यान में रखते हुए उन सुदूर आंचलिक भाषाओं में भी पुस्तकों के प्रकाशन की आवश्यकता पर ज़ोर दिया जिनमें अभी बहुत कम साहित्य उपलब्ध है। उनके अनुसार इससे अंग्रेजी, हिन्दी और अन्य प्रमुख भाषाएँ नहीं जानने वाले बच्चों को भी किताब खरीदने के लिए लुभाया जा सकेगा।
कवयित्री, लेखिका और अनुवादक दीपा अग्रवाल ने विशेष रूप से 'अक्षम' बच्चों को ध्यान में रखते हुए ऑडियो बुक्स की संख्या बढ़ाये जाने की बात कही। उन्होंने बच्चों की किताबों की मार्केटिंग के क्षेत्र में कुछ ऑनलाइन कंपनियों के साथ ही एन. बी. टी तथा सी. बी. टी. की भूमिका की सराहना की।
'पिकल यॉक बुक्स' प्रकाशन की संस्थापक ऋचा झा ने अपना अनुभव साझा करते हुए माना कि अक्सर लेखक पर प्रकाशक का और प्रकाशक पर बाजार का दबाव रहता है जिसका असर किताबों की गुणवत्ता तथा बिक्री पर पड़ता है हालाँकि वो ख़ुद लेखक और प्रकाशक होने के नाते इन सारे दवाबों से परे अपना काम करती हैं। ऋचा के अनुसार बच्चों की पुस्तक उनके विचार, कल्पना और भाषा का आईना होनी चाहिए। और फिर उन तक पहुँचाने के लिए मार्केटिंग की सही तकनीक का प्रयोग किया जाना चाहिए। इस महत्वपूर्ण सत्र का संचालन 'सीगल बुक्स' प्रकाशन के संस्थापक नवीन किशोर ने किया।