by Ishan Roy
अनुवाद के माध्यम से प्रगाढ़ होती है साहित्यिक एकता, सांस्कृतिक समरसता और राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद के साहित्यिक ताने-बाने को रचने में अनुवाद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। तथा इस पर बहुआयामी चर्चा की संभावना हमेशा बनी रहती है। विशेष रूप से भारत जैसे विविध संस्कृतियों वाले देश में जहाँ तक़रीबन 122 बोली एवं भाषाएं बोली जाती हैं, वहाँ अनुवाद की भूमिका निर्विवाद रूप से बहुत ही सशक्त व मुखर हो जाती हैं। अनुवाद के इसी महत्व को केंद्र में रखते हुए 'जयपुर बुक मार्क' के पहले दिन के पाँचवें सत्र में एक सार्थक परिचर्चा आयोजित हुई। विषय था " ट्रांसलेटिंग नेशनल नैरेटिव्ज़"।
साहित्य और उसके अनुवाद पर चर्चा करते हुए स्पेन के मूल निवासी और काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी से संस्कृत की पढ़ाई करने वाले विद्वान लेखक और अनुवादक ऑस्कर पूजोल ने कहा कि 'बनारस में रह कर उन्होंने न सिर्फ़ संस्कृत भाषा को पढ़ा बल्कि वहाँ के 'पण्डितों' से इस भाषा और इससे जुड़े सांस्कृतिक मूल्यों का ज्ञान भी प्राप्त किया'। जिसने बाद में एक अनुवादक के रूप में उनकी बहुत मदद की। श्री ऑस्कर ने संस्कृत की कई उत्कृष्ट कृतियों और शब्दकोशों का अनुवाद स्पेनिश में किया है। उन्होंने कहा कि 'भारत जैसे बहुभाषी देश में 'एक देश - एक भाषा' की परिकल्पना अव्यवहारिक है। इस देश की आत्मा को समझने के लिए यहाँ की तमाम भाषाओं के साहित्य को पढ़ना व समझना ज़रूरी है और अनुवाद इसका सबसे बेहतरीन रास्ता है'।
राजस्थानी भाषा की स्वनामधन्य लेखिका, प्रकाशक और अनुवादक अनुश्री राठौर ने राजस्थानी भाषा की प्रसिद्ध कहावत "चार कोस पर बदले बानी, आठ कोस पर पानी" का उल्लेख करते हुए कहा कि देश की विभिन्न भाषाओं का महत्वपूर्ण साहित्य राजस्थानी भाषा में अनुदित हुआ है। जिससे यहाँ के लोग अन्य साहित्यिक कृतियों से परिचित हुए हैं और यह उम्मीद भी जगी है कि इसी तरह से राजस्थानी साहित्य भी अन्य भाषाओं के पाठकों तक पहुँच सकेगा। उन्होंने कहा कि 'चूँकि सारी भाषाएँ आपस में कहीं न कहीं जुड़ी होती हैं इसलिए अनुवाद के ज़रिये ऐसे साहित्यिक आदान-प्रदान से ही राष्ट्रवाद की अवधारणा को बल मिलता है'।
मलयालम भाषा के जाने-माने प्रकाशक और नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ़ इण्डिया की सलाहकार समिति के सदस्य रह चुके रवि डीसी ने अपने विचार रखते हुए बताया कि 'मलयालम भाषा में अधिकांश साहित्य का अनुवाद मौजूद है जिसका श्रेय इसके पाठकों को जाता है'। उन्होंने कहा कि 'अनुवाद के व्यापक महत्व के बावजूद इसे अभी वह प्रतिष्ठा नहीं मिली है जो मौलिक लेखन को मिलती है। इसके लिए उन्होंने बाकायदा सरकारी रूपरेखा और योजनायें बनाने की आवश्यकता पर बल दिया'।
जानी-मानी लेखिका, समीक्षक और अनुवादक रक्षंदा जलील ने परिचर्चा में अपने विचार रखते हुए कहा कि अनुवाद के माध्यम से राष्ट्रवाद के सूत्र को मज़बूत करने के लिए यह ज़रूरी है कि हम इतने बड़े देश के कोने-कोने में बोली जाने वाली स्थानीय भाषाओं के साथ ही वहाँ की 'बोलियों' को भी बराबर से महत्व दें क्योंकि इन 'स्थानीय बोलियों' में ही किसी स्थान तथा संस्कृति विशेष की असली पहचान और सुगंध छिपी होती है। छोटी-छोटी धाराओं का महत्व किसी बड़ी नदी से कम नहीं होता। अनुवाद के लिए भी यही तरीक़ा ज़्यादा कारगर है कि मुख्य भाषाओं के साथ ही 'आंचलिक व स्थानीय बोलियों' को सारे पाठकों तक पहुँचाया जाय।
परिचर्चा में सम्मिलित सभी वक्ताओं ने एक स्वर से माना कि अनुवाद का लक्ष्य संकुचित नहीं हो सकता इसलिए ज़रूरी है कि हर उपलब्ध साहित्य का न सिर्फ़ अधिकतम अनुवाद हो बल्कि उसकी बिक्री भी हो और उसे पढ़ा भी जाये। अनुवाद को एक परम्परा के रूप में स्थापित करना होगा। सत्र का संचालन अदिति माहेश्वरी गोयल ने किया। इस सत्र की प्रस्तुति 'वाणी प्रकाशन' की ओर से की गयी।