मेरी लेखनी भूख की उपज़ है

मेरी लेखनी भूख की उपज़ है

यह शीर्षक मेरे मस्तिष्क की उपज़ बिल्कुल भी नही है अपितु यह तो à¤®à¤¨à¥‹à¤°à¤‚जन व्यापारी à¤œà¥€ की नक्सलवादी से लेखक तक के अपने सफर को एक पंक्ति मे पिरोने की कोशिश है जो कि आज उन्होने जयपुर साहित्योत्सव में जयपुर बुकमार्क के अंतर्गत आलोचक à¤…रुनाव सिन्हा à¤¤à¤¥à¤¾ साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार विजेता लेखक à¤¹à¤‚सदा सौवेंद्रशेखर à¤¸à¥‡ बातचीत के दौरान कही।

उनकी आत्मकथा के अनुवादित संस्कारण पर बात करते हुये जब अरुनाव ने ये जानना चाहा कि उन्हे जीवन मे सबसे ज्यादा गुस्सा किस बात पर आता है तो उनका जवाब था कि “भूख मेरे जीवन का पहला और सबसे बड़ा गुस्सा है”। उनका कहना था कि मैं उस व्यवस्था का दुश्मन हूँ जो लोगों को भूख से मरने को तड़पता छोड़ देती है और शायद इसी के विरोध के कारण कई बार व्यवस्था भी मेरी दुश्मन बन जाती है ।

हंसदा ने जब उनकी पुस्तक का एक प्रसंग याद दिलाया जिसमें वो पत्थर फेंक कर मारने की 2-3 घटनाओं का वर्णन करते हैं तो उन्होने अपने अत्यंत सघर्षपूर्ण और अभावों मे गुजरे जीवन की बातें साझा करते हुये बताया कि कैसे वो अपनी जीवन की दुश्वारियों से लड़ते-लड़ते नक्सली बन जाते हैं । इसी सफर के दौरान 24 साल की उम्र मे जेल के अंदर वो पहली बार पढ़ना लिखना सीखते हैं। उन्होने इस बात को वर्णित करते हुये कहा कि “जेल दुनिया का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय है”।

उनका कहना था कि अगर भूख से लोगों को न बचाया गया तो वे डाकू बन जाएँगे क्योंकि “क्रांतिकारी और डाकू मे बहुत बारीक अंतर होता है”, तथा एक आम गरीब आदमी मे इतनी समझ नही होती कि वो ये अंतर कर सके खासतौर पर तब कि जब वो भूख से मरने की कगार पर खड़ा हो ।

जब उनसे उनकी पुस्तक के साहित्यिक पक्ष पर बात करने की कोशिश की गयी तो उनका जवाब था कि “वास्तविक कहानियों मे साहित्यिक गुण नहीं होते परंतु उनमें सच होता है”, यही कारण है कि वो पाठकों को पसंद आती हैं।

बांग्लादेश निर्माण के समय के विभाजन के कटु अनुभवो को साझा करते हुये उनका कहना था कि “भारत का विभाजन नही हुआ, वास्तव में तो बंगाल और पंजाब का विभाजन हुआ,” यही कारण है कि बाकी देश के लोग उनका दर्द नही समझ पाते। आज़ादी को महज़ एक दिन की छुट्टी की संज्ञा देते हुये उनका कहना था कि वास्तव मे सरकारों ने जमीनी स्तर पर वैसे प्रयास नही किए जैसे करने चाहिए थे, इस कारण से लोगों का नकसलवाद की तरफ झुकाव बढ़ा क्योंकि वे उन्हे अपने जैसे लगे।

नक्सलवाद से अलग होने के बाद के अपने सफर का जिक्र करते हुये वे चाय की दुकान को ज्ञान का सबसे बड़ा भंडार बताते हैं जहां पर काम करने के दौरान उनकी सामाजिक और राजनीतिक विषयों पर समझ बढ़ी। उन्होने आदिवासी समाज को वास्तव में हमारे समाज से ज्यादा सभ्य बताया क्योंकि वे ईमानदार होते हैं, झूठ नही बोलते, चोरी नही करते जो कि वास्तव में एक सच्चे मनुष्य के गुण होने चाहिए ।

श्रोताओं के प्रश्नों का जवाब देते हुये वे भाग्य, पूर्व जन्मों के फल आदि की अवधारणा को यह कहते हुये पूर्णतः नकार देते हैं कि ये सब केवल हमें विरोध करने से रोकने के लिए बनाई गयी भ्रांतियाँ हैं, अन्यथा ऐसी आमानता कैसे स्वीकार्य हो सकती है कि देश की 73% संपत्ति पर केवल 1% लोगों का अधिकार हो।

परंतु अंत मे वे यह ज़रूर स्वीकार करते हैं कि धीरे-धीरे ही सही, थोड़ा बहुत बदलाव तो समाज मे आ रहा है। उनका कहना था कि कम से कम लोगों मे जागरूकता तो बढ़ी है अन्यथा आज वे इस साहित्यिक महोत्सव में नही होते। बातचीत का अंत उन्होने इस सकारात्मक नोट के साथ किया कि अगर वे लोगों को अपनी बात समझाने मे सफल रहे तो आगे शायद हमारे समाज मे कम से कम लोग भूखे तो नही मरेंगे और न ही डाकू या नक्सली बनेंगे ।

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