परंपरा की जड़ में लोकभाषा

परंपरा की जड़ में लोकभाषा

By- Aditya Narayan, Officially Blogger Jaipur Literature Festival

भारत की राजभाषा, आधिकारिक भाषा और लोक भाषा के अंतर्द्वंद एवं अंतरसंबंधों को लेकर आज़ादी के बाद से ही तमाम बहस संसद के अन्दर तथा बाहर होते रहे हैं| संविधान की आठवीं अनुसूची में निहित 22 भाषाओँ के अतिरिक्त अभी भी समय समय पर विभिन्न लोकभाषाओं को इसके आठवी अनुसूची के अंतर्गत लाने कि मांग उठती रहती है| तमाम बुद्धिजीवियों का इस मुद्दे के पक्ष और विपक्ष में अपने अपने विचार हैं पर भारत की विभिन्न लोकभाषाओं को लेकर जो समस्या हमारे सामने है वो है युवाओं का अपनी लोकभाषा प्रति घटता चलन| ‘राजस्थानी’ भारत में एक बड़ी जनसँख्या द्वारा प्रयोग में ली जाने वाली लोकभाषा है और 16वीं शताब्दी में ये भारत कि सबसे समृद्ध भाषा मानी जाती थी| राजस्थानी में पद्य लिखने की पम्परा बहुत पुरानी है| और पारम्परिक तौर से इसे लयबद्ध तरीके से लिखा जाता था पर कालांतर में धीरे-धीरे इसमें आधुनिक शब्दों का भी प्रयोग शुरू हुआ जिससे इसके स्वरुप में भी काफी अंतर आया है| कविता आपके दिल को छू लेती पर वहीँ कहानी आपके दिल को चीरते हुए निकल जाती है और बहुत दिनों तक आप उसके साथ रह जाते हैं| ‘राजस्थानी’ लोकभाषा के इन्ही पहलुओं, आकर्षण और समस्याओं को समर्पित रहा ज़ी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का आखिरी दिन|

‘राजस्थानी’ लोकभाषा पर बात करते हुए राज्य साहित्य अकादमी अवार्ड विजेता बुलाकी शर्मा ने अपनी किताब ‘लहसुनिया’ का जिक्र करते हुए कहा कि कैसे हमारे लोक परंपरा में माँ बेटे के मधुर संबंधों एवं प्यार को उन्होंने इस किताब में दर्शाया है| व्यंग और हास्य विधा कि तुलना करते हुए बुलाकी ने कहा कि ‘हास्य के मुकाबले व्यंग कहीं ज्यादा मुश्किल कला है| व्यंग में आपकी सम्वेंदना सिझंती है और इसीलिए व्यंग पाठकों को चुभती भी है’| युवाओं और बाल कहानियों पर अपना मंतव्य जाहिर करते हुए बुलाकी ने कहा कि ‘आज के लेखकों को युवाओं के युवा बनकर तथा बच्चों के लिए बच्चा बनकर लिखने की जरुरत है| खुद का उदाहरण लेते हुए बुलाकी ने कहा कि वो कोई भी बाल कहानी लिखने के बाद अपने नाती-पोतों को उसे सुनाते हैं और अगर उन्हें ये कहानियां पसंद आती है तो फिर किसी समीक्षक कि टिपण्णी उनके लिए मायने नहीं रखती हैं’|

राजस्थान विश्वविद्यालय में कार्यरत और राजस्थान राज्य साहित्य अवार्ड विजेता अभिमन्यु सिंह आरहा राजस्थानी लोकभाषा के प्रति उदासीनता पर दुःख जताते हुए कहा कि ‘जहाँ विदेश में रह रहे सिन्धी या बीकानेरी मिलाने पर राजस्थानी में बात करते है वहीँ हम राजस्थान में रह कर भी यहाँ की लोकभाषा में बात नहीं करते है और इससे कहीं ना कहीं राजस्थानी भाषा धीरे धीरे मरने लगी है’| 1200 वर्षों से चले आ रहे राजस्थानी लोकभाषा के स्वर्णिम इतिहास को बताते हुए अभिमन्यु ने कहा कि रविन्द्र नाथ के अनुसार वीर रस में जैसा योगदान और दर्शाने की विधा राजस्थानी ने दिखाई है वैसी भारत की किसी भाषा ने नहीं दिखाई है|लोक भाषा के प्रति अपनी प्रेम को बताते हुए कमला गोयनका अवार्ड विजेता रीना मिनारिया ने कहा कि राजस्थानी उनके हर शब्द में दिखता है और युवाओं को फिर उन गाँवों को याद दिलाने कि जरुरत है जो उनकी जड़ है|

भारतीय संविधान ने तमाम आधार और नियमों के अनुसार आठवीं अनुसूची का गठन किया है और आने वाले दिनों में उसके अनुसार लोकभाषाओँ को उसमे जगह मिलेगी भी, पर हमारा एकमात्र उद्देश्य कभी भी नहीं इस अनुसूची में आना नहीं होना चाहिए बल्कि हमरा उद्देश्य हमेशा से इन लोकभाषाओं के विकास पर होना चाहिए क्युकी आठवी अनुसूची में आने का आखिर मतलब ही क्या होगा अगर उसे बोलने वाला कोई नहीं होगा|

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